नाटक-एकाँकी >> हँसो और खिलखिलाओ हँसो और खिलखिलाओउदय शंकर भट्ट
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बारह मनोरंजक हास्य एकांकी
Hanso Aur Khilkhilao
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्राक्कथन
मेरे ये हास्य एकांकी अनेक बार रंगमंच पर अभिनीत हो चुके हैं। मंचन के बाद मुझे बताया गया है कि दर्शकगण खूब हँसे, खिलखिलाए और फिर सम्बद्ध समस्याओं अथवा प्रसंगों के विषय में विचार करने को भी प्रेरित हुए। इन एकांकियों में मैंने विभिन्न अवस्थाओं में पात्रों की मानसिक प्रवृत्तियों को दर्शाने का प्रयास किया है। वास्तव में प्रस्तुतिकरण की यथार्थता पर ही उसकी प्रभावशीलता निर्भर है।
मेरा विश्वास है कि समाज में रूढ़ियों, दुराग्रहों एवं मूढ़ताओं को दूर करने में रंगमंच की विशेष भूमिका है। यथार्थ यदि कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाए तो उससे सामाजिक, राजनीतिक तथा नैतिक दृष्टि से परिष्कार होता है।
हास्य एकांकी का समस्यामूलक होना स्वाभाविक ही है और तभी वह मनोरंजन के साथ-साथ वास्तविक स्थिति की ओर भी पाठक अथवा दर्शक का ध्यान आकर्षित करता है। इसके आंतरिक मनोवैज्ञानिक तथ्यों का समीकरण भी आवश्यक है।
इस संग्रह में ‘‘सत्य का मंदिर’’ जैसे व्यंग्य प्रधान एकांकी भी हैं। मेरी समझ में यह भी जीवन के सहज विकास के लिए आवश्यक है। जो हमारे अंतर को न झिंझोड़, वैसा मात्र मनोरंजन भी अभीष्ट नहीं जान पड़ता। साहित्य आत्मा के विकास का साधन है, ऐसी मेरी मान्यता है।
जीवन को मैंने आलोचक की आँखों से देखने का प्रयास किया है। इसीलिए मेरे प्रहसनों के पात्रों में वास्तविकता तथा वस्तुवादी सामग्री का ठोस सम्मिश्रण है। घटनाओं की प्रस्तुति रोचक भी है और व्यंग्यात्मक भी। आशा है पाठकगण इनके रस-संचार से आनन्दित होंगे।
मेरा विश्वास है कि समाज में रूढ़ियों, दुराग्रहों एवं मूढ़ताओं को दूर करने में रंगमंच की विशेष भूमिका है। यथार्थ यदि कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाए तो उससे सामाजिक, राजनीतिक तथा नैतिक दृष्टि से परिष्कार होता है।
हास्य एकांकी का समस्यामूलक होना स्वाभाविक ही है और तभी वह मनोरंजन के साथ-साथ वास्तविक स्थिति की ओर भी पाठक अथवा दर्शक का ध्यान आकर्षित करता है। इसके आंतरिक मनोवैज्ञानिक तथ्यों का समीकरण भी आवश्यक है।
इस संग्रह में ‘‘सत्य का मंदिर’’ जैसे व्यंग्य प्रधान एकांकी भी हैं। मेरी समझ में यह भी जीवन के सहज विकास के लिए आवश्यक है। जो हमारे अंतर को न झिंझोड़, वैसा मात्र मनोरंजन भी अभीष्ट नहीं जान पड़ता। साहित्य आत्मा के विकास का साधन है, ऐसी मेरी मान्यता है।
जीवन को मैंने आलोचक की आँखों से देखने का प्रयास किया है। इसीलिए मेरे प्रहसनों के पात्रों में वास्तविकता तथा वस्तुवादी सामग्री का ठोस सम्मिश्रण है। घटनाओं की प्रस्तुति रोचक भी है और व्यंग्यात्मक भी। आशा है पाठकगण इनके रस-संचार से आनन्दित होंगे।
बीमार का इलाज
पात्र-परिचय
चन्द्रकान्त
आगरे का एक रईस, जो अंग्रेजी सभ्यता व रहन-सहन का प्रेमी है। एकदम भारी भरकम, उम्र 45 वर्ष।
कान्ति
चन्द्रकान्त का बड़ा पुत्र। उम्र लगभग 21-22 वर्ष।
विनोद
कान्ति का समवयस्क मित्र।
शान्ति
कान्ति का छोटा भाई।
सरस्वती
कान्ति की माँ, अपने पति से सर्वथा भिन्न, दुबली-पचली, पुराने विचारों की।
प्रतिमा
कान्ति की बहन-एकदम मोटी, उम्र 24 वर्ष।
डॉ. गुप्ता, डॉ. नानकचन्द्र, वैद्य हरिश्चन्द्र, बूढ़ा नौकर सुखिया, पण्डित, पुजारी इत्यादि।
आगरे में कान्ति के पिता मि. चन्द्रकान्त की कोठी का कमरा। कमरे की सजावट एक सम्पन्न परिवार के अनुरूप-सोफा सेट, कुर्सियाँ, तिपाई इत्यादि सभी वस्तुएँ मौजूद हैं-पर नौकर पर निर्भर रहने तथा रूढ़िवादी गृह-स्वामिनी के कारण स्वच्छता, सलीके का अभाव; दरी पर बिछी हुई चादर काफी मैली है। जिस समय का यह दृश्य दिखाया जा रहा है, उस समय सवेरे के आठ बजे हैं। कान्ति का मित्र विनोद बिस्तर पर लेटा है। उसे अचानक रात में ज्वर हो गया, लगभग 104 डिग्री। कड़ी काठी होने के कारण वह लापरवाही से कभी उठकर बैठ जाता है और कभी उठकर टहलने लगता है। वह अपने भीतर से यह विचार निकाल देना चाहता है कि उसे ज्वर है। फिर ज्वर की तेजी उसे बेचैन कर देती है और वह लेट जाता है। कुछ देर बाद कान्ति ‘नाइट ड्रेस’ में कन्धे पर तौलिया डाले चपलियाँ फटफटाता, सीटी बजाता, बाएँ दरवाजे से कमरे में आता है।
कान्ति: हलो विनोद, अमाँ अभी तक चारपाई से चिपटे हो—आठ बज रहे हैं। क्या भूल गए, आज गाँव जाना है ? मैं तो स्वयं देर से उठा, वरना मुझे अब तक तैयार हो जाना चाहिए था। लेकिन तुमने तो कुम्भकर्ण के चाचा को भी मात कर दिया, यार ! (पास जाकर) क्या बात है ? खैर तो है ?
विनोद: रात न जाने क्यों बुखार हो गया। (हाथ फैलाकर) देखो !
कान्तिः (देह छूकर) ओह, सारी देह अंगारे की तरह दहक रही है।
विनोद: कम्बख्त बुखार कैसे बेमौके आ धमका !
कान्ति, यार इस बुखार ने तो सारा मजा किरकिरा कर दिया। इलाहाबाद से मैं तुम्हें कितने आग्रह से छुट्टियाँ बिताने के लिए यहाँ आगरे लाया था। सोचा था, कुछ दिन यहाँ घर में आनन्द-मौज करेंगे और फिर खूब गाँव की सैर करेंगे।
विनोद: मालूम होता है, मेरे भाग्य में गाँव की सैर नहीं लिखी। ये छुट्टियाँ बेकार गईं।
कान्तिः गाँव का रास्ता बड़ा ऊबड़-खाबड़ है। इस दशा में तुम्हारा गाँव जाना असम्भव है। सोचता हूँ, मैं भी न जाऊँ; पर जाए बिना काम भी तो नहीं चलेगा। कल चाचाजी शायद मुकदमे के लिए बाहर चले जाएँगे; न जाने कब लौटें ! कहो तो मैं अकेला ही हो आऊँ—इफ यू डोण्ट माइण्ड !
विनोद: नहीं, नहीं, तुम हो आओ। उन्होंने आग्रह करके बुलाया है, हो आओ। मैं ठीक हो जाऊँगा। कोई बात नहीं।
कान्ति: तुम्हें कोई तकलीफ न होगी। डॉक्टर आ जाएगा। मैं शाम को ही लौटने का यत्न करूँगा।
विनोद: नहीं, नहीं, मामूली बुखार है, ठीक हो जाएगा, जाओ।
कान्ति के पिता चन्द्रकान्त का प्रवेश
चन्द्रकान्त: (दूर से) किसको बुखार है, बेटा कान्ति ? अरे इतनी देर हो गई, तुम अभी तक गाँव नहीं गए। धूप हो जाएगी। धूप, धूल और धुआँ इनमें तीन न सही, दो ही आदमी के प्राण निकालने को काफी हैं। उस पर घोड़े की सवारी—न कूदते बने, न सीधे बैठते बने। बुखार किसे हो गया बेटा ?
कान्ति: बाबू जी, विनोद को रात बुखार हो गया। देह तवे की तरह गरम है। डॉक्टर को बुलाना है। ऐसे में इसका जाना...
चन्द्रकान्त: हैं हैं, विनोद कैसे जा सकता है ? और फीवर, जंगल में आग की तरह उद्दंड ! अभी डॉक्टर को बुलाकर दिखा देना होगा। मैंने निश्चय कर लिया है, डॉक्टर भटनागर अब इस घर में कदम नहीं रख सकता। उसने प्रतिमा का केस खराब कर दिया था। बुखार उससे उतरता ही न था। वह एकदम बकरे के थन की तरह निकम्मा सिद्ध हुआ। वैसे पूछो तो उस बेचारे का कसूर भी नहीं था, दवा तो उसने एक-से-एक बढ़िया दी; पर इससे क्या, बुखार तो नहीं उतरा। टाइफाइड को छोड़कर चाहे उसका बाप भी क्यों न हो, उसे कुछ-न-कुछ तो उतरना ही चाहिए। डॉक्टर गुप्ता ने आते ही उतार दिया। अब गुप्ता ही मेरा फैमिली डॉक्टर है। गुप्ता को बुलाओ। सुखिया, ओ सुखिया, जा जरा डॉक्टर गुप्ता को तो बुला ला। कहना वह कान्ति के मित्र हैं न, जो प्रयाग से आए हैं, उन्हें उन्हें बुखार हो गया है; जरा चलकर देख लीजिए। बाबूजी ने कहा है। बेटा मान गया मैं तो....
कान्ति: डॉ. भटनागर में मेरा ‘फेथ’ कभी नहीं रहा बाबूजी, लेकिन डॉक्टर नानकचन्द भी कम नहीं हैं। विनोद को उसे दिखाना ही ठीक होगा। न जाने उसके हाथ में कैसा जादू है। मेरा तो दिन-पर-दिन ‘होमियोपैथी’ में विश्वास बढ़ता जा रहा है।
चन्द्रकान्त: (कमरे में टहलते हुए) मेरे बच्चे, तुम पढ़-लिखकर भी नासमझ ही रहे। बिना अनुभव के समझदार और बच्चे में अन्तर ही क्या है ? अरे होमियोपैथी भी कोई इलाज है ! चाकलेट या मीठी गोलियाँ, न दीं; होमियोपैथिक दवा दे दी ! याद रखो, बड़ों की बात गाँठ बाँध लो—जब इलाज करो, ऐलोपैथिक डॉक्टर का इलाज करो। ‘कड़वी भेषज बिन पिए, मिटे न तन का को पाप।’ ये बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं, कहते क्यों नहीं विनोद बेटा ?
विनाद: जी ! (करवट बदल लेता है)
ये वैद्य हकीम क्या जानें, हरड़-बहेड़ा और शरबत-शोरबे के पण्डित !
कान्ति: मैं चाहता हूँ, आप इस मामले में....
चन्द्रकान्त: नहीं, यह नहीं हो सकता। मैं जानता हूँ विनोद का भला इसी में है।
सुखिया का प्रवेश
सुखिया: सरकार वो बाबू आए हैं।
चन्द्रकान्त: अबे कौन बाबू, नाम भी बताएगा या यों ही....
सुखिया: वही जो उस दिन रात को आए थे।
चन्द्रकान्त: लो और सुनो, गधों से पाला पड़ा गया है।
सुखिया: यह बाबू सरकार....
चन्द्रकान्त: कह दे, आता हूँ। और मैंने तुझे डॉक्टर के पास भेजा था। जल्दी जा (स्वयं भी चला जाता है)
कान्ति: तुम घबराना मत। मैं डॉक्टर नानकचन्द को बुलाकर लाऊँगा। अव्वल तो मेरा खयाल है, शाम तक बुखार उतर जाएगा। अच्छी विनोद, देर हो रही है चलूँ। अभी मुझे बाथ-रूम भी जाना है।
विनोद: हाँ, हाँ, तुम जाओ। मैंने बुखार की कभी परवाह नहीं की है, कान्ति। उतर जाएगा आपने-आप। शाम तक लौटने की कोशिश करना।
कान्ति: अवश्य, अवश्य, तुम्हारे बिना मेरा मन भी क्या लगेगा। लेकिन जाना जरूरी है। अच्छा, विश यू आल राइट। (सीटी बजाता चला जाता है।)
विनोद: नमस्कार। (करवट बदलकर लेट जाता है)
कान्ति की माँ सरस्वती का प्रवेश
सरस्वती: (कमरे में घुसते ही) विनोद, क्या बात है ? उठो, चाय वाय तैयार है कुछ खाओ पियो। (पास जाकर) क्या बात है, खैर, तो है ? कुछ तबीयत खराब है क्या ? (पलंग के पास जाकर विनोद को छूकर) आय-हाय देखो तो कितना बुखार है। मुँह ईंगुर-सा लाल हो रिया है बिचारे का—घबराओ मत बेटा, मैं अभी वैद्य हरिचन्द को बुलाती हूँ। देखकर दवा दे जाएँगे। बड़े काबिल वैद्य हैं, विनोद। जरा कपड़ा ओढ़ लो न। (उढ़ाती है) जैसा कान्ति वैसा ही तू। मेरे लेखे तो दोनों एक हो। क्या सिर में कुछ दर्द है ? (हाथ फेरकर) कब्जी होगी। अभी ठीक हो जाएगी। सुखिया, ओ सुखिया। न जाने कहाँ मर गया। इन नौकरों के मारे तो नाक में दम हो गिया है। अरे शान्ति, ओ शान्ति। (शान्ति आता है) देख तो बेटा, जा हरिचन्द वैदजी को बुला ला। देखकर दवा दे जाएँगे। भैया वैद हो तो ऐसा हो....
विनोद: माताजी, बाबूजी ने डॉक्टर गुप्ता को बुलाया है। शायद कान्ति ने डॉक्टर नानकचन्द के लिए कहा है।
सरस्वती: लो और सुनो, इसके मारे भी मेरा नाक में दम है। उस मरे डॉक्टर कोन कुछ आवे है, न जावे है। न जाने क्यों डॉक्टर गुप्ता के पीछे पड़े रहे हैंगे। क्या नाम है उस मारे भटनागर का ? इन दोनों ने तो छोरी को मार ही डाला था। वह तो कहो, भला हो इन वैदजी का, बचा लिया। जा बेटा शान्ति, जा तो सही जल्दी।
शान्ति: जाऊँ हूँ माँ। (चला जाता है)
सरस्वती: अरी प्रतिमा, ओ प्रतिमा, (दूर से ही आवाज आती है-‘हाँ माँ क्या है ?) देख जरा मन्दिर में पण्डित पूजा कर रहे हैं। उनसे कहियो, जरा इधर होते जाएँ। और देख, उनसे कहियो, मार्जन का जल लेते आवें, विनोद भैया बीमार हैं। मैंने घर में ही मन्दिर बनवाया है बेटा !
विनोद: उत्सुकता से करवट बदलकर) पण्डित जी का क्या होगा यहाँ माँ ?
सरस्वती: बेटा, जरा मार्जन कर देंगे। अपने वो पण्डितजी रोज पूजा करने आवें हैं। मार्जन कर देंगे। सारी अल-बला दूर हो जाएगी। तुम पढ़े-लिखे लोग मानो या न मानो, पर मैं तो मानूँ हूँगी भैया ! पिछले दिनों प्रतिमा बीमार थी। समझ लो पण्डितजी के मार्जन से ही अच्छी हुई। मैंने कथा में एक बार सुना था—बुखार-उखार तो नाम के हैं, असली तो ये ग्रह, भूत ही हैं, जो बुखार बनकर आजाएँ हैंगे। सिर दबा दूँ क्या बेटा ? जैसे कान्ति वैसे तुम। तब तक न हो थोड़ासा दूध पी लो। अरी मिसरानी ! (दूर से आवाज ‘आई बहू जी’) अरी, देख, थोड़ा दूध तो गरम कर लाइयो।
विनोद: दूध तो मैं नहीं पियूँगी माताजी।
सरस्वती: (चिल्लाकर) अच्छा रहने दे। (विनोद से) क्या हर्ज है, थोड़ी देर बाद सही। जरा ओढ़ लो, मैं अभी आई। (जैसे ही जाने लगती है वैसे ही मार्जन का जल, दूर्वा लेकर पण्डितजी कमरे में आते हैं। सरस्वती पण्डित जी से देखो पण्डितजी, तुम्हारी पूजा से प्रतिमा जी उठी थी। याद है न ? ये मेरे कान्ति का मित्र है। देखो एक साथ पढ़े हैं। तुम्हें नहीं मालूम आजकल वो आया है न ! चाचा ने बुलाया है, आज गाँव जा रिया है। विनोद भी जा रिया था, पर इस बिचारे को बुखार हो गिया। जरा मन्त्र पढ़कर मार्जन तो कर दो।
पण्डितजी: क्यों नहीं, बहू जी, मन्त्र का बड़ा प्रभाव है। पुराने समयों में दवा-दारू कौन करे था। बस, मन्त्राभिसिक्त जल से मार्जन करा कि बीमारी गई। तुम तो बीमारी की कहो हो, यहाँ तो मरे जी उठे थे मरे, जिनके जीने का कोई सवाल ही नहीं उठे था। (आँखें मटका कर) हाँ, ऐसा था मन्त्र का प्रभाव।
सरस्वती: सच कहो हो पण्डितजी, जरा कर तो दो मार्जन। वैसे मैंने अपने उस वैदजी को भी बुलाया है। शान्ति गया है बुलाने।
पण्डितजी: तभी, तभी, मैं भी कहूँ आज शान्ति बाबू नहीं दिखाई दिए। ठीक है, पर शत्रु पर जब दो पिल पड़ें तो वह बचकर कैसे जाएगा ? अच्छा, यो कान्ति बाबू के दोस्त हैं ! अच्छा है भैया, खुश रहो, खूब पढ़ो-लिखो, धर्म में श्रद्धा रखो—हम तो ये कहे हैं। क्यों बहू जी ?
सरस्वती: हाँ और क्या, पर आजकल के ये पढ़े लिखे कुछ मानें तब न ? तुम्हारे उन्हीं को देख लो, कुछ दिनों से डॉक्टरों के चक्कर में पड़े हैं। मैं कहूँ हूँ, अपने बुजुर्गों की दवाइयाँ क्यों छोड़ी जाएँ ? जब ये डॉक्टर नहीं थे तब क्या कोई अच्छा नहीं होवे था ? सभी ठीक होयँ थे। अब जाने कैसा जमाना आ रिया है।
पण्डितजी: जमाना बड़ा खराब है, देवता, ब्राह्मण और गौ पर तो जैसे श्रद्धा ही न रही।
सरस्वती: अच्छा पण्डितजी, मार्जन कर दो, मैं अभी आई। (चली जाती है। पण्डित मन्त्र पढ़कर विनोद के ऊपर बार-बार जल छिड़कता है। (इसी समय डॉक्टर को लेकर चन्द्रकान्त प्रवेश करता है।)
चन्द्रकान्त: हैं हैं, अरे क्या हो रहा है ? (पास जाकर) बस करो ब्राह्मण देवता, बस करो, ‘जोर से) अरे तुम क्या समझते हो इसे भूत है। रहने दो। न जाने इन औरतों को कब बुद्धि आएगी। अरे, डॉक्टर गुप्ता आप इधर बैठिए न !
पण्डितजी: बस, थोड़ा ही मार्जन रह गया है, बाबू जी। (मार्जन करता है)
डॉक्टर गुप्ता: महाराज, क्यों मारना चाहते हो बीमार को। निमोनिया हे जाएगा, निमोनिया। (डॉक्टर के कहने पर भी पण्डित मार्जन किये ही जाता है। अटर न्यूसेन्स, मिस्टर चन्द्रकान्त !
चन्द्रकान्त: (कड़क कर) बस रहने दो। सुनते नहीं डॉक्टर गुप्ता क्या कह रहे हैं ? निमोनिया हे जाएगा।
पण्डितजी: जैसी आपकी इच्छा। मेरा तो विचार है, विनोद बाबू का इतने से ही बुखार उतर गया होगा (चला जाता है)
डॉक्टर गुप्ता: मन्त्रों से बीमारी अच्छी हो जाती तो हम क्या भाड़ झोंकने को इतना पढ़ते ! न जाने देश का यह अज्ञान कब दूर होगा ! (खाट के पास खड़ा होकर विनोद को देखता है) बुखार तेज है। जीभ दिखाइए। पेट दिखाइए। (थर्मामीटर लगाकर नाड़ी की गति गिनता है, फिर थर्मामीटर देखकर) 104 डिग्री। कोई बात नहीं, ठीक हो जाएगा। दवा लिखे देता हूँ, डिस्पेन्सरी से मँगा लीजिएगा। दो-दो घण्टे बाद। पीने को केवल दूध। यू विल भी आल राइट विद इन टू आर थ्री डेज़।
चन्द्रकान्त: डॉक्टर गुप्ता, ये कान्ति के दोस्त हैं, बिचारे उसके साथ को आए थे।
डॉक्टर गुप्ता: ठीक हो जाएँगे। बेचैनी मालूम हो, बुखार न उतरे तो बरफ़ रखिएगा सिर पर।
चन्द्रकान्त: ठीक है। (विनोद से) घबराने की कोई बात नहीं। ठीक हो जाओगे, मामूली बुखार है। मैं अभी दवा लाता हूँ।
डॉक्टर गुप्ता: मैं शाम को भी आकर देख लूँगा। मिस्टर चन्द्रकान्त। (एक तरफ से दोनों चले जाते हैं। दूसरी तरफ से सरस्वती आती है)
सरस्वती: क्या हुआ ? पण्डित जी चले गए ? मार्जन कर गए ?
विनोदः (चुपचाप खड़ा रहता है)
सरस्वती: (देह छूकर) अब तो बुखार कम है। देखा मन्त्र का प्रभाव, मार्जन करते ही फरक पड़ गया। (वहीं से झल्लाकर) प्रतिमा, ओ प्रतिमा, सुनियो री जरा।
प्रतिमा: (वहीं से चिल्लाती हुई) क्या है ?
सरस्वती: देख तो पण्डित जी गए क्या ? बुखार तो बहुत कुछ उतरा दिखाई दे रहा है। उनसे कह जरा और थोड़ी देर मर्जन कर दें।
(प्रतिमा जाती है)
विनोद: नहीं रहने दीजिए। वे मार्जन कर गए हैं।
सरस्वती: क्या हर्ज है, अपने घर के ही पण्डित हैं। आधी रात को बुलाओ तो आधी रात को आवें। मखौल है क्या, बीस रुपए महीना से भी आमदनी हो जाए हैगी।
(प्रतिमा का प्रवेश)
प्रतिमा: पण्डितजी तो गए अम्मा।
विनोद: माताजी, मार्जन रहने दीजिए। काफी हो गया। (चुप हो जाता है।)
(वैद हरिचन्द शान्ति के साथ आते हैं)
सरस्वती: लो, वैद जी आ गए। आओ वैद जी।
हरिचन्द: क्या बात है बहू जी ? सवेरे-ही-सवेरे शान्ति जो पहुँचा तो मैं डर गया। कायदे से किसी आदमी को देखकर वैद्य को खुश होना चाहिए। परन्तु मेरी आदत तो और ही है, मैं तो चाहता हूँ अपनी जान-पहचान ले लोग सदा प्रसन्न रहें। हाँ, क्या बात है ? (संकेत से पूछता है)
सरस्वती: ये कान्ति के साथ पढ़े हैं वैद जी। छुट्टियों में उसी के संग सैर को आया, सो बिचारा बीमार पड़ गया ! जरा देखो तो—
(जैसे ही वैद्य नाड़ी देखने को बढ़ता है वैसे ही विनोद बोल उठता है।)
विनोद: डॉक्टर गुप्ता भी देख गए हैं, माता जी।
हरिचन्द: फिर मेरी क्या आवश्यकता है, मेरा काम ही क्या है ? (एकदम दूर जा खड़ा होता है।) मैं ऐसे रोगियों का इलाज नहीं करता। उसी डॉक्टर का इलाज करो। और मैं तो राजा भूपेन्द्रसिंह के यहाँ जा रहा था। सोचा, बाबू जी ने बुलाया है तो जाना ही चाहिए।
सरस्वती: वैद जी, उनकी भली चलाई। आने दो डॉक्टर गुप्ता को। इलाज तो तुम जानो, तुम्हारा ही होगा। मैं क्या कान्ति के मित्र को बीमार होने दूँगी ? नहीं, तुम्हें ही इलाज करना होगा। तुम्हारी ही दवा दी जाएगी। चलो देखो। उन मरों ने प्रतिमा को तो मार ही दिया था। तुम्हीं ने तो बताया। वाह, यह कैसे हो हो सके हैगा ? इस घर में डॉक्टरी नहीं चलेगी।
हरिचन्द: (पास जाकर विनोद को देखते हुए) हाँ, सोच लो। मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो दवा देने के लिए भागते फिरें। मैं अच्छी तरह जानता हूँ, बाबू चन्द्रकान्त डॉक्टरों के चक्कर में पड़ गए हैं, जो अँग्रेजी दवाइयाँ देकर लोगों को मार देते हैं। (व्यंग्य से हँसकर) ये डॉक्टर भी अजीब हैं। देशी बीमारी और अंग्रेजी दवाई ! न देश, न काल ! (विनोद को देखकर) पेट खराब है। काढ़ा देना होगा। एक गोली दूँगा, काढ़े के साथ दे देना। बुखार पचेगा और ठीक हो जाएगा।
सरस्वती: (उछल कर) मैं कह नहीं रही थी कब्जी से बुखार है। कहो, विनोद क्या कहा था ? घोड़ी नहीं चढ़े तो क्या बारात भी नहीं देखी ! बहुत-सी बीमारी का इलाज तो मैं खुद ही कर लूँ हूँगी।
हरिचन्द: बीमारी पहचानने में कर तो ले कोई मेरा मुकाबला। बड़े-बड़े सिविल सर्जन मुझे बुलाते हैं। अभी उस दिन राजा साहब के यहाँ सारे शहर के डॉक्टर इकट्ठे हुए, किसी की समझ में नहीं आ रहा था क्या बीमारी है। मुझे बुलाया गया, देखते ही मैंने झट से कह दिया यह बीमारी है।
सरस्वती: (वैद्य की तरफ विश्वास से देखकर) फिर मान गए ?
हरिचन्द: मानते न तो क्या करते ! वह सिक्का बैठा कि शहर भर में धूम मच गई। अब रोज जाता हूँ।
सरस्वती: आराम आ गया फिर ? भला क्यों न आराम आता। हमारे वैद्य जी क्या कोई कम हैं।
हरिचन्द: अभी देर लगेगी। पुराना रोग है। ठीक हो जाएगा।
सरस्वती: अरे, तो आरम नहीं आया ? भला कौन बीमार है ?
हरिचन्द: उनकी बड़ी लड़की।
सरस्वती: (साश्चर्य) वह गप्पो, क्या वैद जी ? बड़ी अच्छी लड़की है बिचारी। राम करे अच्छी हो जाए !
हरिचन्द: हाँ। अच्छा, चला। काढ़ा और गोली भेज दूँगा। पहले बुखार पचेगा, फिर उतरेगा। उस दिन राजा साहब बोले—वैद्य जी, हमने आपको अपने परिवार का चिकित्सक बना लिया है।
सरस्वती: सो तो है ही। तुम्हें क्या कमी है ! मैं उनसे यही तो कहूँ कि हमें तो वैद जी की दवा लगे है। पर न जाने—
हरिचन्द: सस्ती दवा, थोड़ी फीस, देशकाल के अनुसार। और मैं डॉक्टरी नहीं जानता ? मैंने भी तो मेटीरिया मेडिका, सर्जरी पढ़ी है।
सरस्वती: सो तो है ही वैद जी। (सरस्वती वैद के साथ एक द्वार से बाहर निकल जाती है। दूसरे से चन्द्रकान्त सुखिया के साथ दवा लेकर आते हैं।)
चन्द्रकान्त: लो बेटा विनोद, एक खुराक पी लो। अभी ठीक हो जाओगे। (विनोद को उठाकर दवा पिलाता है।)
विनोद: अभी वैद्य हरिचन्द भी देखने आए थे।
चन्द्रकान्त: (चौंककर) आए थे ? वह मूर्ख वैद्य ! वह क्या जाने इलाज करना। इन औरतों के मारे नाक में दम है साहब। दवा तो नहीं पी न ? अच्छा दो-दो घण्टे बाद दवा लेते रहना। पीने को दूध, बस और कुछ नहीं। मैं काम से जा रहा हूँ। (जाते-जाते सुखिया से) देख, तू यहाँ बैठ। बाबू की देख-भाल करना, भला।
सुखिया: जी सरकार।
(चन्द्रकान्त चला जाता है)
बाबू मैं तो झाड़-फूँक में विश्वास करता हूँ। हाथ फेरते ही बुखार उतर जाएगा। यह ओझा से पानी लाया हूँ। दो घण्टे में बुखार क्या उसका नाम भी न रहेगा। मैंने तो छोटे बाबू से सवेरे ही कहा था—कहो तो ओझा को बुलाऊँ पर वे न माने। कहा, तू पागल है सुखिया। मैं चुप हो रहा। क्या करता, गरीब आदमी ठहरा। अभी दो घण्टे में बुखार का नाम भी न रहेगा बाबू !
डॉ. गुप्ता, डॉ. नानकचन्द्र, वैद्य हरिश्चन्द्र, बूढ़ा नौकर सुखिया, पण्डित, पुजारी इत्यादि।
आगरे में कान्ति के पिता मि. चन्द्रकान्त की कोठी का कमरा। कमरे की सजावट एक सम्पन्न परिवार के अनुरूप-सोफा सेट, कुर्सियाँ, तिपाई इत्यादि सभी वस्तुएँ मौजूद हैं-पर नौकर पर निर्भर रहने तथा रूढ़िवादी गृह-स्वामिनी के कारण स्वच्छता, सलीके का अभाव; दरी पर बिछी हुई चादर काफी मैली है। जिस समय का यह दृश्य दिखाया जा रहा है, उस समय सवेरे के आठ बजे हैं। कान्ति का मित्र विनोद बिस्तर पर लेटा है। उसे अचानक रात में ज्वर हो गया, लगभग 104 डिग्री। कड़ी काठी होने के कारण वह लापरवाही से कभी उठकर बैठ जाता है और कभी उठकर टहलने लगता है। वह अपने भीतर से यह विचार निकाल देना चाहता है कि उसे ज्वर है। फिर ज्वर की तेजी उसे बेचैन कर देती है और वह लेट जाता है। कुछ देर बाद कान्ति ‘नाइट ड्रेस’ में कन्धे पर तौलिया डाले चपलियाँ फटफटाता, सीटी बजाता, बाएँ दरवाजे से कमरे में आता है।
कान्ति: हलो विनोद, अमाँ अभी तक चारपाई से चिपटे हो—आठ बज रहे हैं। क्या भूल गए, आज गाँव जाना है ? मैं तो स्वयं देर से उठा, वरना मुझे अब तक तैयार हो जाना चाहिए था। लेकिन तुमने तो कुम्भकर्ण के चाचा को भी मात कर दिया, यार ! (पास जाकर) क्या बात है ? खैर तो है ?
विनोद: रात न जाने क्यों बुखार हो गया। (हाथ फैलाकर) देखो !
कान्तिः (देह छूकर) ओह, सारी देह अंगारे की तरह दहक रही है।
विनोद: कम्बख्त बुखार कैसे बेमौके आ धमका !
कान्ति, यार इस बुखार ने तो सारा मजा किरकिरा कर दिया। इलाहाबाद से मैं तुम्हें कितने आग्रह से छुट्टियाँ बिताने के लिए यहाँ आगरे लाया था। सोचा था, कुछ दिन यहाँ घर में आनन्द-मौज करेंगे और फिर खूब गाँव की सैर करेंगे।
विनोद: मालूम होता है, मेरे भाग्य में गाँव की सैर नहीं लिखी। ये छुट्टियाँ बेकार गईं।
कान्तिः गाँव का रास्ता बड़ा ऊबड़-खाबड़ है। इस दशा में तुम्हारा गाँव जाना असम्भव है। सोचता हूँ, मैं भी न जाऊँ; पर जाए बिना काम भी तो नहीं चलेगा। कल चाचाजी शायद मुकदमे के लिए बाहर चले जाएँगे; न जाने कब लौटें ! कहो तो मैं अकेला ही हो आऊँ—इफ यू डोण्ट माइण्ड !
विनोद: नहीं, नहीं, तुम हो आओ। उन्होंने आग्रह करके बुलाया है, हो आओ। मैं ठीक हो जाऊँगा। कोई बात नहीं।
कान्ति: तुम्हें कोई तकलीफ न होगी। डॉक्टर आ जाएगा। मैं शाम को ही लौटने का यत्न करूँगा।
विनोद: नहीं, नहीं, मामूली बुखार है, ठीक हो जाएगा, जाओ।
कान्ति के पिता चन्द्रकान्त का प्रवेश
चन्द्रकान्त: (दूर से) किसको बुखार है, बेटा कान्ति ? अरे इतनी देर हो गई, तुम अभी तक गाँव नहीं गए। धूप हो जाएगी। धूप, धूल और धुआँ इनमें तीन न सही, दो ही आदमी के प्राण निकालने को काफी हैं। उस पर घोड़े की सवारी—न कूदते बने, न सीधे बैठते बने। बुखार किसे हो गया बेटा ?
कान्ति: बाबू जी, विनोद को रात बुखार हो गया। देह तवे की तरह गरम है। डॉक्टर को बुलाना है। ऐसे में इसका जाना...
चन्द्रकान्त: हैं हैं, विनोद कैसे जा सकता है ? और फीवर, जंगल में आग की तरह उद्दंड ! अभी डॉक्टर को बुलाकर दिखा देना होगा। मैंने निश्चय कर लिया है, डॉक्टर भटनागर अब इस घर में कदम नहीं रख सकता। उसने प्रतिमा का केस खराब कर दिया था। बुखार उससे उतरता ही न था। वह एकदम बकरे के थन की तरह निकम्मा सिद्ध हुआ। वैसे पूछो तो उस बेचारे का कसूर भी नहीं था, दवा तो उसने एक-से-एक बढ़िया दी; पर इससे क्या, बुखार तो नहीं उतरा। टाइफाइड को छोड़कर चाहे उसका बाप भी क्यों न हो, उसे कुछ-न-कुछ तो उतरना ही चाहिए। डॉक्टर गुप्ता ने आते ही उतार दिया। अब गुप्ता ही मेरा फैमिली डॉक्टर है। गुप्ता को बुलाओ। सुखिया, ओ सुखिया, जा जरा डॉक्टर गुप्ता को तो बुला ला। कहना वह कान्ति के मित्र हैं न, जो प्रयाग से आए हैं, उन्हें उन्हें बुखार हो गया है; जरा चलकर देख लीजिए। बाबूजी ने कहा है। बेटा मान गया मैं तो....
कान्ति: डॉ. भटनागर में मेरा ‘फेथ’ कभी नहीं रहा बाबूजी, लेकिन डॉक्टर नानकचन्द भी कम नहीं हैं। विनोद को उसे दिखाना ही ठीक होगा। न जाने उसके हाथ में कैसा जादू है। मेरा तो दिन-पर-दिन ‘होमियोपैथी’ में विश्वास बढ़ता जा रहा है।
चन्द्रकान्त: (कमरे में टहलते हुए) मेरे बच्चे, तुम पढ़-लिखकर भी नासमझ ही रहे। बिना अनुभव के समझदार और बच्चे में अन्तर ही क्या है ? अरे होमियोपैथी भी कोई इलाज है ! चाकलेट या मीठी गोलियाँ, न दीं; होमियोपैथिक दवा दे दी ! याद रखो, बड़ों की बात गाँठ बाँध लो—जब इलाज करो, ऐलोपैथिक डॉक्टर का इलाज करो। ‘कड़वी भेषज बिन पिए, मिटे न तन का को पाप।’ ये बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं, कहते क्यों नहीं विनोद बेटा ?
विनाद: जी ! (करवट बदल लेता है)
ये वैद्य हकीम क्या जानें, हरड़-बहेड़ा और शरबत-शोरबे के पण्डित !
कान्ति: मैं चाहता हूँ, आप इस मामले में....
चन्द्रकान्त: नहीं, यह नहीं हो सकता। मैं जानता हूँ विनोद का भला इसी में है।
सुखिया का प्रवेश
सुखिया: सरकार वो बाबू आए हैं।
चन्द्रकान्त: अबे कौन बाबू, नाम भी बताएगा या यों ही....
सुखिया: वही जो उस दिन रात को आए थे।
चन्द्रकान्त: लो और सुनो, गधों से पाला पड़ा गया है।
सुखिया: यह बाबू सरकार....
चन्द्रकान्त: कह दे, आता हूँ। और मैंने तुझे डॉक्टर के पास भेजा था। जल्दी जा (स्वयं भी चला जाता है)
कान्ति: तुम घबराना मत। मैं डॉक्टर नानकचन्द को बुलाकर लाऊँगा। अव्वल तो मेरा खयाल है, शाम तक बुखार उतर जाएगा। अच्छी विनोद, देर हो रही है चलूँ। अभी मुझे बाथ-रूम भी जाना है।
विनोद: हाँ, हाँ, तुम जाओ। मैंने बुखार की कभी परवाह नहीं की है, कान्ति। उतर जाएगा आपने-आप। शाम तक लौटने की कोशिश करना।
कान्ति: अवश्य, अवश्य, तुम्हारे बिना मेरा मन भी क्या लगेगा। लेकिन जाना जरूरी है। अच्छा, विश यू आल राइट। (सीटी बजाता चला जाता है।)
विनोद: नमस्कार। (करवट बदलकर लेट जाता है)
कान्ति की माँ सरस्वती का प्रवेश
सरस्वती: (कमरे में घुसते ही) विनोद, क्या बात है ? उठो, चाय वाय तैयार है कुछ खाओ पियो। (पास जाकर) क्या बात है, खैर, तो है ? कुछ तबीयत खराब है क्या ? (पलंग के पास जाकर विनोद को छूकर) आय-हाय देखो तो कितना बुखार है। मुँह ईंगुर-सा लाल हो रिया है बिचारे का—घबराओ मत बेटा, मैं अभी वैद्य हरिचन्द को बुलाती हूँ। देखकर दवा दे जाएँगे। बड़े काबिल वैद्य हैं, विनोद। जरा कपड़ा ओढ़ लो न। (उढ़ाती है) जैसा कान्ति वैसा ही तू। मेरे लेखे तो दोनों एक हो। क्या सिर में कुछ दर्द है ? (हाथ फेरकर) कब्जी होगी। अभी ठीक हो जाएगी। सुखिया, ओ सुखिया। न जाने कहाँ मर गया। इन नौकरों के मारे तो नाक में दम हो गिया है। अरे शान्ति, ओ शान्ति। (शान्ति आता है) देख तो बेटा, जा हरिचन्द वैदजी को बुला ला। देखकर दवा दे जाएँगे। भैया वैद हो तो ऐसा हो....
विनोद: माताजी, बाबूजी ने डॉक्टर गुप्ता को बुलाया है। शायद कान्ति ने डॉक्टर नानकचन्द के लिए कहा है।
सरस्वती: लो और सुनो, इसके मारे भी मेरा नाक में दम है। उस मरे डॉक्टर कोन कुछ आवे है, न जावे है। न जाने क्यों डॉक्टर गुप्ता के पीछे पड़े रहे हैंगे। क्या नाम है उस मारे भटनागर का ? इन दोनों ने तो छोरी को मार ही डाला था। वह तो कहो, भला हो इन वैदजी का, बचा लिया। जा बेटा शान्ति, जा तो सही जल्दी।
शान्ति: जाऊँ हूँ माँ। (चला जाता है)
सरस्वती: अरी प्रतिमा, ओ प्रतिमा, (दूर से ही आवाज आती है-‘हाँ माँ क्या है ?) देख जरा मन्दिर में पण्डित पूजा कर रहे हैं। उनसे कहियो, जरा इधर होते जाएँ। और देख, उनसे कहियो, मार्जन का जल लेते आवें, विनोद भैया बीमार हैं। मैंने घर में ही मन्दिर बनवाया है बेटा !
विनोद: उत्सुकता से करवट बदलकर) पण्डित जी का क्या होगा यहाँ माँ ?
सरस्वती: बेटा, जरा मार्जन कर देंगे। अपने वो पण्डितजी रोज पूजा करने आवें हैं। मार्जन कर देंगे। सारी अल-बला दूर हो जाएगी। तुम पढ़े-लिखे लोग मानो या न मानो, पर मैं तो मानूँ हूँगी भैया ! पिछले दिनों प्रतिमा बीमार थी। समझ लो पण्डितजी के मार्जन से ही अच्छी हुई। मैंने कथा में एक बार सुना था—बुखार-उखार तो नाम के हैं, असली तो ये ग्रह, भूत ही हैं, जो बुखार बनकर आजाएँ हैंगे। सिर दबा दूँ क्या बेटा ? जैसे कान्ति वैसे तुम। तब तक न हो थोड़ासा दूध पी लो। अरी मिसरानी ! (दूर से आवाज ‘आई बहू जी’) अरी, देख, थोड़ा दूध तो गरम कर लाइयो।
विनोद: दूध तो मैं नहीं पियूँगी माताजी।
सरस्वती: (चिल्लाकर) अच्छा रहने दे। (विनोद से) क्या हर्ज है, थोड़ी देर बाद सही। जरा ओढ़ लो, मैं अभी आई। (जैसे ही जाने लगती है वैसे ही मार्जन का जल, दूर्वा लेकर पण्डितजी कमरे में आते हैं। सरस्वती पण्डित जी से देखो पण्डितजी, तुम्हारी पूजा से प्रतिमा जी उठी थी। याद है न ? ये मेरे कान्ति का मित्र है। देखो एक साथ पढ़े हैं। तुम्हें नहीं मालूम आजकल वो आया है न ! चाचा ने बुलाया है, आज गाँव जा रिया है। विनोद भी जा रिया था, पर इस बिचारे को बुखार हो गिया। जरा मन्त्र पढ़कर मार्जन तो कर दो।
पण्डितजी: क्यों नहीं, बहू जी, मन्त्र का बड़ा प्रभाव है। पुराने समयों में दवा-दारू कौन करे था। बस, मन्त्राभिसिक्त जल से मार्जन करा कि बीमारी गई। तुम तो बीमारी की कहो हो, यहाँ तो मरे जी उठे थे मरे, जिनके जीने का कोई सवाल ही नहीं उठे था। (आँखें मटका कर) हाँ, ऐसा था मन्त्र का प्रभाव।
सरस्वती: सच कहो हो पण्डितजी, जरा कर तो दो मार्जन। वैसे मैंने अपने उस वैदजी को भी बुलाया है। शान्ति गया है बुलाने।
पण्डितजी: तभी, तभी, मैं भी कहूँ आज शान्ति बाबू नहीं दिखाई दिए। ठीक है, पर शत्रु पर जब दो पिल पड़ें तो वह बचकर कैसे जाएगा ? अच्छा, यो कान्ति बाबू के दोस्त हैं ! अच्छा है भैया, खुश रहो, खूब पढ़ो-लिखो, धर्म में श्रद्धा रखो—हम तो ये कहे हैं। क्यों बहू जी ?
सरस्वती: हाँ और क्या, पर आजकल के ये पढ़े लिखे कुछ मानें तब न ? तुम्हारे उन्हीं को देख लो, कुछ दिनों से डॉक्टरों के चक्कर में पड़े हैं। मैं कहूँ हूँ, अपने बुजुर्गों की दवाइयाँ क्यों छोड़ी जाएँ ? जब ये डॉक्टर नहीं थे तब क्या कोई अच्छा नहीं होवे था ? सभी ठीक होयँ थे। अब जाने कैसा जमाना आ रिया है।
पण्डितजी: जमाना बड़ा खराब है, देवता, ब्राह्मण और गौ पर तो जैसे श्रद्धा ही न रही।
सरस्वती: अच्छा पण्डितजी, मार्जन कर दो, मैं अभी आई। (चली जाती है। पण्डित मन्त्र पढ़कर विनोद के ऊपर बार-बार जल छिड़कता है। (इसी समय डॉक्टर को लेकर चन्द्रकान्त प्रवेश करता है।)
चन्द्रकान्त: हैं हैं, अरे क्या हो रहा है ? (पास जाकर) बस करो ब्राह्मण देवता, बस करो, ‘जोर से) अरे तुम क्या समझते हो इसे भूत है। रहने दो। न जाने इन औरतों को कब बुद्धि आएगी। अरे, डॉक्टर गुप्ता आप इधर बैठिए न !
पण्डितजी: बस, थोड़ा ही मार्जन रह गया है, बाबू जी। (मार्जन करता है)
डॉक्टर गुप्ता: महाराज, क्यों मारना चाहते हो बीमार को। निमोनिया हे जाएगा, निमोनिया। (डॉक्टर के कहने पर भी पण्डित मार्जन किये ही जाता है। अटर न्यूसेन्स, मिस्टर चन्द्रकान्त !
चन्द्रकान्त: (कड़क कर) बस रहने दो। सुनते नहीं डॉक्टर गुप्ता क्या कह रहे हैं ? निमोनिया हे जाएगा।
पण्डितजी: जैसी आपकी इच्छा। मेरा तो विचार है, विनोद बाबू का इतने से ही बुखार उतर गया होगा (चला जाता है)
डॉक्टर गुप्ता: मन्त्रों से बीमारी अच्छी हो जाती तो हम क्या भाड़ झोंकने को इतना पढ़ते ! न जाने देश का यह अज्ञान कब दूर होगा ! (खाट के पास खड़ा होकर विनोद को देखता है) बुखार तेज है। जीभ दिखाइए। पेट दिखाइए। (थर्मामीटर लगाकर नाड़ी की गति गिनता है, फिर थर्मामीटर देखकर) 104 डिग्री। कोई बात नहीं, ठीक हो जाएगा। दवा लिखे देता हूँ, डिस्पेन्सरी से मँगा लीजिएगा। दो-दो घण्टे बाद। पीने को केवल दूध। यू विल भी आल राइट विद इन टू आर थ्री डेज़।
चन्द्रकान्त: डॉक्टर गुप्ता, ये कान्ति के दोस्त हैं, बिचारे उसके साथ को आए थे।
डॉक्टर गुप्ता: ठीक हो जाएँगे। बेचैनी मालूम हो, बुखार न उतरे तो बरफ़ रखिएगा सिर पर।
चन्द्रकान्त: ठीक है। (विनोद से) घबराने की कोई बात नहीं। ठीक हो जाओगे, मामूली बुखार है। मैं अभी दवा लाता हूँ।
डॉक्टर गुप्ता: मैं शाम को भी आकर देख लूँगा। मिस्टर चन्द्रकान्त। (एक तरफ से दोनों चले जाते हैं। दूसरी तरफ से सरस्वती आती है)
सरस्वती: क्या हुआ ? पण्डित जी चले गए ? मार्जन कर गए ?
विनोदः (चुपचाप खड़ा रहता है)
सरस्वती: (देह छूकर) अब तो बुखार कम है। देखा मन्त्र का प्रभाव, मार्जन करते ही फरक पड़ गया। (वहीं से झल्लाकर) प्रतिमा, ओ प्रतिमा, सुनियो री जरा।
प्रतिमा: (वहीं से चिल्लाती हुई) क्या है ?
सरस्वती: देख तो पण्डित जी गए क्या ? बुखार तो बहुत कुछ उतरा दिखाई दे रहा है। उनसे कह जरा और थोड़ी देर मर्जन कर दें।
(प्रतिमा जाती है)
विनोद: नहीं रहने दीजिए। वे मार्जन कर गए हैं।
सरस्वती: क्या हर्ज है, अपने घर के ही पण्डित हैं। आधी रात को बुलाओ तो आधी रात को आवें। मखौल है क्या, बीस रुपए महीना से भी आमदनी हो जाए हैगी।
(प्रतिमा का प्रवेश)
प्रतिमा: पण्डितजी तो गए अम्मा।
विनोद: माताजी, मार्जन रहने दीजिए। काफी हो गया। (चुप हो जाता है।)
(वैद हरिचन्द शान्ति के साथ आते हैं)
सरस्वती: लो, वैद जी आ गए। आओ वैद जी।
हरिचन्द: क्या बात है बहू जी ? सवेरे-ही-सवेरे शान्ति जो पहुँचा तो मैं डर गया। कायदे से किसी आदमी को देखकर वैद्य को खुश होना चाहिए। परन्तु मेरी आदत तो और ही है, मैं तो चाहता हूँ अपनी जान-पहचान ले लोग सदा प्रसन्न रहें। हाँ, क्या बात है ? (संकेत से पूछता है)
सरस्वती: ये कान्ति के साथ पढ़े हैं वैद जी। छुट्टियों में उसी के संग सैर को आया, सो बिचारा बीमार पड़ गया ! जरा देखो तो—
(जैसे ही वैद्य नाड़ी देखने को बढ़ता है वैसे ही विनोद बोल उठता है।)
विनोद: डॉक्टर गुप्ता भी देख गए हैं, माता जी।
हरिचन्द: फिर मेरी क्या आवश्यकता है, मेरा काम ही क्या है ? (एकदम दूर जा खड़ा होता है।) मैं ऐसे रोगियों का इलाज नहीं करता। उसी डॉक्टर का इलाज करो। और मैं तो राजा भूपेन्द्रसिंह के यहाँ जा रहा था। सोचा, बाबू जी ने बुलाया है तो जाना ही चाहिए।
सरस्वती: वैद जी, उनकी भली चलाई। आने दो डॉक्टर गुप्ता को। इलाज तो तुम जानो, तुम्हारा ही होगा। मैं क्या कान्ति के मित्र को बीमार होने दूँगी ? नहीं, तुम्हें ही इलाज करना होगा। तुम्हारी ही दवा दी जाएगी। चलो देखो। उन मरों ने प्रतिमा को तो मार ही दिया था। तुम्हीं ने तो बताया। वाह, यह कैसे हो हो सके हैगा ? इस घर में डॉक्टरी नहीं चलेगी।
हरिचन्द: (पास जाकर विनोद को देखते हुए) हाँ, सोच लो। मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो दवा देने के लिए भागते फिरें। मैं अच्छी तरह जानता हूँ, बाबू चन्द्रकान्त डॉक्टरों के चक्कर में पड़ गए हैं, जो अँग्रेजी दवाइयाँ देकर लोगों को मार देते हैं। (व्यंग्य से हँसकर) ये डॉक्टर भी अजीब हैं। देशी बीमारी और अंग्रेजी दवाई ! न देश, न काल ! (विनोद को देखकर) पेट खराब है। काढ़ा देना होगा। एक गोली दूँगा, काढ़े के साथ दे देना। बुखार पचेगा और ठीक हो जाएगा।
सरस्वती: (उछल कर) मैं कह नहीं रही थी कब्जी से बुखार है। कहो, विनोद क्या कहा था ? घोड़ी नहीं चढ़े तो क्या बारात भी नहीं देखी ! बहुत-सी बीमारी का इलाज तो मैं खुद ही कर लूँ हूँगी।
हरिचन्द: बीमारी पहचानने में कर तो ले कोई मेरा मुकाबला। बड़े-बड़े सिविल सर्जन मुझे बुलाते हैं। अभी उस दिन राजा साहब के यहाँ सारे शहर के डॉक्टर इकट्ठे हुए, किसी की समझ में नहीं आ रहा था क्या बीमारी है। मुझे बुलाया गया, देखते ही मैंने झट से कह दिया यह बीमारी है।
सरस्वती: (वैद्य की तरफ विश्वास से देखकर) फिर मान गए ?
हरिचन्द: मानते न तो क्या करते ! वह सिक्का बैठा कि शहर भर में धूम मच गई। अब रोज जाता हूँ।
सरस्वती: आराम आ गया फिर ? भला क्यों न आराम आता। हमारे वैद्य जी क्या कोई कम हैं।
हरिचन्द: अभी देर लगेगी। पुराना रोग है। ठीक हो जाएगा।
सरस्वती: अरे, तो आरम नहीं आया ? भला कौन बीमार है ?
हरिचन्द: उनकी बड़ी लड़की।
सरस्वती: (साश्चर्य) वह गप्पो, क्या वैद जी ? बड़ी अच्छी लड़की है बिचारी। राम करे अच्छी हो जाए !
हरिचन्द: हाँ। अच्छा, चला। काढ़ा और गोली भेज दूँगा। पहले बुखार पचेगा, फिर उतरेगा। उस दिन राजा साहब बोले—वैद्य जी, हमने आपको अपने परिवार का चिकित्सक बना लिया है।
सरस्वती: सो तो है ही। तुम्हें क्या कमी है ! मैं उनसे यही तो कहूँ कि हमें तो वैद जी की दवा लगे है। पर न जाने—
हरिचन्द: सस्ती दवा, थोड़ी फीस, देशकाल के अनुसार। और मैं डॉक्टरी नहीं जानता ? मैंने भी तो मेटीरिया मेडिका, सर्जरी पढ़ी है।
सरस्वती: सो तो है ही वैद जी। (सरस्वती वैद के साथ एक द्वार से बाहर निकल जाती है। दूसरे से चन्द्रकान्त सुखिया के साथ दवा लेकर आते हैं।)
चन्द्रकान्त: लो बेटा विनोद, एक खुराक पी लो। अभी ठीक हो जाओगे। (विनोद को उठाकर दवा पिलाता है।)
विनोद: अभी वैद्य हरिचन्द भी देखने आए थे।
चन्द्रकान्त: (चौंककर) आए थे ? वह मूर्ख वैद्य ! वह क्या जाने इलाज करना। इन औरतों के मारे नाक में दम है साहब। दवा तो नहीं पी न ? अच्छा दो-दो घण्टे बाद दवा लेते रहना। पीने को दूध, बस और कुछ नहीं। मैं काम से जा रहा हूँ। (जाते-जाते सुखिया से) देख, तू यहाँ बैठ। बाबू की देख-भाल करना, भला।
सुखिया: जी सरकार।
(चन्द्रकान्त चला जाता है)
बाबू मैं तो झाड़-फूँक में विश्वास करता हूँ। हाथ फेरते ही बुखार उतर जाएगा। यह ओझा से पानी लाया हूँ। दो घण्टे में बुखार क्या उसका नाम भी न रहेगा। मैंने तो छोटे बाबू से सवेरे ही कहा था—कहो तो ओझा को बुलाऊँ पर वे न माने। कहा, तू पागल है सुखिया। मैं चुप हो रहा। क्या करता, गरीब आदमी ठहरा। अभी दो घण्टे में बुखार का नाम भी न रहेगा बाबू !
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